शनिवार, 31 दिसंबर 2011

॥ श्रीरामचन्द्र स्तुति ॥


॥ श्रीरामचन्द्र स्तुति ॥
 
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन
हरण भव भय दारुणं।
नवकंज-लोचन कंज मुख,
कर कंज, पद कंजारुणं॥१॥

(हे मन, कृपा करने वाले श्रीराम का भजन करो जो कष्टदायक जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले हैं, जो नवीन कमल के समान आँखों वाले हैं, जिनका मुख कमल के समान है, जिनके हाथ कमल के समान हैं, जिनके चरण रक्तिम (लाल) आभा वाले कमल के समान हैं॥१॥)

कन्दर्प अगणित अमित छवि
नवनील-नीरद सुन्दरं।
पटपीत मानहु तड़ित रुचि
शुचि नौमि जनक सुतावरं॥२॥

(जो अनगिनत कामदेवों के समान तेजस्वी छवि वाले हैं, जो नवीन नील मेघ केसमान सुन्दर हैं, जिनका पीताम्बर सुन्दर विद्युत् के समान है, जो पवित्रता की साकार मूर्ति श्रीसीता जी के पति हैं॥२॥)

भजु दीनबन्धु दिनेश
दानव दैत्यवंश-निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्द कंद
कौशलचन्द दशरथ-नन्दनं॥३॥

(हे मन, दीनों के बन्धु, सूर्यवंशी, दानवों और दैत्यों के वंश का नाश करने वाले, रघु के वंशज, सघन आनंद रूप, अयोध्याधिपति श्रीदशरथ के पुत्र श्रीराम को भजो ॥३॥)

सिर मुकट कुण्डल तिलक
चारु उदारु अंग विभूषणं।
आजानु-भुज-शर-चाप-धर,
संग्राम जित-खरदूषणं॥४॥

(जिनके मस्तक पर मुकुट, कानों में कुंडल और माथे पर तिलक है, जिनके अंग प्रत्यंग सुन्दर, सुगठित और भूषण युक्त हैं, जो घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाले हैं, जो धनुष और बाण धारण करते हैं, जो संग्राम में खर और दूषण को जीतने वाले हैं॥४॥)

इति वदति तुलसीदास
शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय-कंज निवास कुरु,
कामादि खलदल-गंजनं॥५॥

(श्रीतुलसीदास जी कहते हैं, हे शंकर, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले, काम आदि दुर्गुणों के समूह का नाश करने वाले श्रीराम जी आप मेरे हृदय कमल में निवास कीजिये॥५॥)

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि
सो बरु सहज सुंदर सांवरो।
करुणा निधान सुजान
सील सनेह जानत रावरो॥६॥

(जो तुम्हारे मन को प्रिय हो गया है, वह स्वाभाविक रूप से सुन्दर सांवला वर ही तुमको मिलेगा। वह करुणा की सीमा और सर्वज्ञ है और तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है॥६॥)

एहि भांति गौरि असीस सुनि
सिय सहित हियं हरषी अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि-पुनि
मुदित मन मंदिर चली॥७॥

(इस प्रकार श्रीपार्वती जी का आशीर्वाद सुनकर श्री सीता जी सहित सभी सखियाँ प्रसन्न हृदय वाली हो गयीं। श्रीतुलसीदास जी कहते हैं - श्रीपार्वती जी की बार बार पूजा करके श्रीसीता जी प्रसन्न मन से महल की ओर चलीं॥७॥)

जानि गौरी अनुकूल सिय
हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल
वाम अंग फरकन लगे॥८॥

(श्रीपार्वती जी को अनुकूल जान कर, श्रीसीता जी के ह्रदय की प्रसन्नता का कोई ओर-छोर  नहीं है। सुन्दर और मंगलकारी लक्षणों की सूचना देने वाले उनके बाएं अंग फड़कने लगे॥८॥)