मंगलवार, 19 मई 2009

बद्ध और मुक्त

आत्मना बध्यते ह्यात्मा मुञ्चेन्नात्मानमात्मना।
कोशकारो यथा कीट आत्मानं वेष्टयेद् दृढम् ।।
न चोद्वेष्टयितुं शक्त आत्मानं स पुनर्यथा।
तथा संसारिण: सर्वे बद्धा: स्वैरेव बन्धनै:।।
न च मोचयितुं शक्ता: पशव: पाशबन्धना:।
स्वयमेव स्वमात्मानं यावद्वै नेक्षते शिव:।।
शिवशक्तिनिपातात्तु मुच्यन्ते पाशबन्धनात् ।।

(यह आत्मा अपने द्वारा अपने को बन्धन में डाल तो लेता है किन्तु अपने से अपने को मुक्त नहीं कर पाता। जैसे रेशम का कीड़ा अपने द्वारा अपने को सब ओर से दृढ़ता के साथ वेष्टित कर उसके अन्दर स्थित रहता है और उस वेष्टन को काटकर निकलने का सामर्थ्य उसके अन्दर नहीं रहता उसी प्रकार यह (परमात्मास्वरूप) जीव अपने बन्धन से बँध तो जाता है किन्तु बन्धन को काटकर निकलने की क्षमता उसमें नहीं रहती। (गुरु के) शक्तिपात के द्वारा वह इस बन्धन को काटने में समर्थ हो जाता है अर्थात् अपने शुद्ध निर्मल अनुपम स्वरूप को पहचान लेता है।)

2 टिप्‍पणियां:

SANSKRITJAGAT ने कहा…

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